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आखिर इस युवा पत्रकार को क्यों लिखना पड़ा ‘मीडिया में भी ओवैसी हैं, एक नहीं कई’

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कासगंज अब तक जब भी किसी मुस्लिम या दलित की मौत हुई, मीडिया ने उसे धर्म-जाति के हिसाब से ही देखा, लिखा और सबको देखने पर मजबूर किया है लेकिन कभी हिन्दू की हत्या लिखने का साहस नहीं किया…। 26 जनवरी को कासगंज में तिरंगा यात्रा में शामिल चंदन गुप्ता की मुस्लिम युवक ने गोली मार हत्या कर दी। हमें पता था कि अब भी कोई नहीं लिखेगा- “हिन्दू की हत्या” लेकिन हमने फिर भी देशभर के संपादकों से आग्रह किया कि वे इसे “कासगंज में हिंदू युवक की हत्या” लिखें जैसे कि वे अब तक “मुस्लिम युवक की हत्या”, “दलित युवक की हत्या” लिखते रहे हैं लेकिन परिणाम…?
फेसबुक पर अपनी पोस्ट पर किए हर वाह—वाह वाले कमेंट को लाइक करने या उसके प्रत्युत्तर में थैंक्यू कहने वाले संपादकों ने मेरे अनुरोध वाली पोस्ट को पढ़ा ही नहीं होगा, यह तो नहीं मान सकते लेकिन इसके बाद भी कासगंज में मुस्लिम युवक द्वारा मार दिए गए अभिषेक उर्फ चंदन गुप्ता की हत्या की खबर को किसी ने निष्पक्ष तरीके से लिखने का साहस नहीं किया। या यूं ​कहिए कि उस तरह से नहीं देखा जिस तरह वे किसी मुस्लिम की हत्या को देखते हैं! खैर, अच्छी बात है कि पहली बार धर्मआधारित शीर्षक न अखबारों में लगे और न ही टीवी चैनलों में इस तरह की स्ट्रिप दिखीं। लेकिन, क्या यह स्थिति संतोषजनक है? क्या इस तरह की पत्रकारिता से निष्पक्षता जाहिर हो रही है? निष्पक्षता तो तभी दिखेगी ना जब कभी मुस्लिम या दलित की हत्या जैसे शीर्षक भी अखबारों में न लिखे जाएं, न टीवी चैनलों पर इस तरह की रिपोर्टिंग की जाए…! क्यों किसी मुस्लिम, दलित की हत्या में उसका धर्म, उसकी जाति इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है और क्यों किसी हिन्दू की हत्या कोई आई-गई बात हो जाती है…?

पत्रकारिता के सिरमौर पर बैठे आदरणीय गण, क्षमा कीजिए! लेकिन इस तरह की पत्रकारिता आपकी नियत और सोच को संदेह के दायरे में लाती है। आप यह न समझिए कि आपकी चालाकी कोई नहीं समझता। जनता सबकुछ समझती है। वह अखबार नहीं फाड़ती, पढ़ लेती है; वह टीवी नहीं फोड़ती, देख लेती है तो यह न समझिए कि उसे जो झूठ दिखाया—पढ़ाया जा रहा है, वह उसकी समझ में ही नहीं आ रहा है! जिस तरह से ​किसी हादसे में मुस्लिम या दलित की हत्या लिखकर—बोलकर—दिखाकर पूरे देश को भड़काया जाता है और जिस तरह किसी हिंदू की हत्या पर हिंदू की हत्या लिखना—दिखाना तो छोड़िए, उसे हत्या तक नहीं माना जाता; “एक युवक की मौत” लिखकर खबर को निपटा दिया जाता है, उससे सबकुछ खुद ही साफ हो जाता है, कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती…!

हैरत है ना! कासगंज में चंदन की हत्या को तमाम अखबारों, पोर्टलों, चैनलों ने मौत करार दे दिया? गोली मारकर हत्या करने की बात को यूं लिखा जैसे किसी समारोह में हर्ष फायरिंग में गोली चली और अनजाने में उसे लग गई…। ज्यादातर मीडिया में यही लिखा गया, यही दिखाया गया— “गोली चली, एक युवक की मौत।” मुस्लिम ने मारा इसलिए यूं लिखा गया जैसे गोली खुद ही चल गई…; हिंदू युवक मरा इसलिए हत्या भी मौत में बदल गई…! यह क्या है? किस तरह की रिपोर्टिंग हैं?

अति आदरणीय,
यदि वाकई बहुत चिंता है आपको पत्रकारिता और पत्रकारों की गिरती साख को लेकर जैसा कि आप सेमिनारों में बोलते हैं तो हमें भी चिंता है इसकी एक पत्रकार ही नहीं, एक पाठक—दर्शक और एक नागरिक होने के नाते भी। इसलिए हम यह सारा खेल समझते हुए कहना चाहते हैं कि इस तरह की पत्रकारिता से यह साख उपर नहीं उठनी बल्कि मटियामेट हो जानी है…। सच कहने की मेरी गुस्ताखी के लिए माफ कीजिए लेकिन धर्म—सम्प्रदाय आधारित भाषण देने वाले स्वार्थी नेताओं से बहुत अलग नहीं हैं आप जैसे पत्रकार जो धर्म—जाति देखकर खबरें तय कर रहे हैं, बावजूद चाहते हैं कि जो लिखते—दिखाते हैं, उसे सच माना जाए और आपको निष्पक्ष मान लिया जाए…! दिल पर हाथ रखकर खुद से पूछिए ना कि क्या आप वाकई निष्पक्ष हैं…?

यह सब देखकर हमें कहना पड़ रहा है कि अब तो जनता को नेताओं की तरह पत्रकारों की भी श्रेणी तय कर लेनी चाहिए। अब तो यकीन हो गया; मीडिया में भी ओवैसी हैं, और एक नहीं, तमाम हैं…। कासगंज मामले की रिपोर्टिंग ने यह फिर से साबित कर दिया है…।

लेखक मृत्युंजय त्रिपाठी देश के जाने माने युवा पत्रकार हैं. कई बड़े समाचार पत्रों में अपनी सेवा दे चुके मृत्युंजय फिलहाल अमर उजाला में कार्यरत है

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