घोटाले की कालिख पर मौत का पर्दा, पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार उपेंद्र चौधरी का बेबाक लेख

NEW DELHI: घोटाले उजागर होते ही घोटालों से जुड़े लोगों की मौत होनी शुरू हो जाती है; चारा घोटाला,व्यापम घोटाला और अब सृजन घोटाला ! ये महज़ संयोग नहीं, बल्कि सोची समझी अंजाम दी गयी ‘मौत’ की तरफ़ इशारा करती है। हां,हर घोटाले व्यवस्था में आसानी से घुलमिल जाने वाले ‘मदर टिंक्चर’ सरीखे ‘पत्रकारों’ के बिना कोई भी ‘सृजन’ मुमकिन नहीं,जो सही मायने में इन घोटालों का एक फरीक बनकर अपनी आय से अधिक संपत्ति का ‘सृजन’ तो करते ही हैं,पत्रकारिता की विश्वसनीयता को भी समय-समय पर निगलने की कोशिश करते रहते हैं। सूत्रों से इशारे मिल रहे हैं कि तीन धाकड़ ‘राष्ट्रवादी’ नेता भी इस घोटाले में अपनी तरह से ‘सृजन’ कर रहे थे और कुछ पत्रकार भी जानते-समझते चुप रहने की कलाबाज़ी दिखा रहे थे। कोई शक नहीं कि सृजन घोटाले के सामने आने का माध्यम भी कोई न कोई पत्रकार ही होगा, जिसे जनता के पैसों का सृजन के माध्यम से कुछ लोगों के हाथों में ‘विसर्जन’ बहुत अखरा होगा।
‘सृजन’ दिल्ली और पटना में नहीं चल रहा था,जहां के सिस्टम की इस्पाती चौखट बड़ी चाक चौबंद मानी जाती है और किसी भी घोटाले को उजागर करने के लिए किसी ईमानदार वक़ील प्रशांत भूषण को दिन रात लगकर, तथ्य जुटाकर सामने आना होता है या फिर किसी ऐसे सुब्रह्मण्यम स्वामी को संकेतों के आधार पर वास्तविक फ़ैक्ट्स जुटाकर देश की सबसे बड़ी अदालत में बार-बार जाना और समझाना पड़ता है,जिन्हें पूजने वाले कुछ लोग फ़कीर मानते हैं,व्यस्था के समर्थक लोग जिन्हें ‘सनकी’ कहते हैं।
भागलपुर देश के किसी आम ज़िले की तरह ही बिहार का एक ज़िला है,जहां इस तरह की गतविधियां लोगों की नज़रों में सरेआम होती हैं। आस-पास के लोग जानते-समझते हैं,फिर भी अपने लब ख़ामोश रखते हैं। इस ख़ामोशी के अमूमन तीन कारण हैं; एक कि ‘कोउ नृप होई हमें का हानि’,दूसरा कि ये ‘सब चलता है’ और तीसरा उसी तरह ‘ख़ामोश’ कर दिये जाने का डर,जैसे कि इस घोटाले से जुड़े दो शख़्स की मौत को सियासी हत्या जैसे शक के घेरे में ला दिया है। लालू प्रसाद यादव के चारा घोटाले से जुड़े लोगों की मौत ऐसे ही हुई थी,कोई ट्रक से कुचल गया था,कोई कार में दम घुटकर चल बसा था,किसी को ‘बीमारी’ निगल गयी थी। शिवराज सिंह चौहान के व्यापम घोटाले ने भी इसी तरह न जाने कितनी जानें लील ली हैंं।
ऐसा लगता नहीं,साफ़ साफ़ दिखता है कि सियासत को चलानेे वाले किरदार भले ही बदल गये हों,मगर सरकार चलाने की शैली वही है; निसंदेह सियासत की नई पैकेजिंग में हमें-आपको रुढ़ियुक्त शैली वाली उसी शैली के रूप में पहचानने में थोड़ा भ्रम होगा।समय बीतने के साथ भ्रम भी भाप बनकर ज़रूर उड़ेगा,मगर हमेशा की तरह तबतक हमारे-आपके हाथों से आकांक्षाओं के पूरे होने वाले तोते भी उड़ चुके होंगे। ठीक उसी तरह,जैसे कभी ‘ग़रीबी हटाओ’ की छतरी में इंदिरा गांधी ने ‘समाजवाद’ का भ्रम दिया था, अमीरी ग़रीबी मिटा डालने और रोज़ी-रोटी के जुगाड़ में संघर्ष करने का भ्रम सीपीआई-सीपीएम ने दिया था, सामाजिक न्याय का ‘आधी हक़ीक़त,आधा फ़साना’ वाला भ्रम लालू प्रसाद यादव ने फैला दिया था और पिछले कई सालों से बिहार में सुशासन के भ्रम का ‘सृजन’ नीतीश कुमार कर रहे हैं। बिहार के ‘सुशासन-काल’ में तो लगभग हर गांव का मुखिया-सरपंच इस तरह के ‘सृजन’ में दिन-रात लगे हुए हैं,जहां करोड़ों के फ़ंड आते हैं और कौड़ियों के काम होते हैं ?